सलोने सपने टूट जाते थे,
बढ़ते कदम वापस आ जाते थे ,
हर मंजिल परायी सी दिखती थी,
हर कोशिश बुराई सी लगती थी
बढ़ते कदम वापस आ जाते थे ,
हर मंजिल परायी सी दिखती थी,
हर कोशिश बुराई सी लगती थी
हर रास्ते शुन्य की तरफ जाती थी,
आँखों में बस अंधेर की चादर लिपटी थी,
फिर भी उम्मीद की एक चिंगारी थी,
शायद सुबह आनी अभी बाकी थी,
लेकर उम्मीद की लो अपने हाथों में,
स्वयं निकल पड़ा था उस शुन्य को पाने में,
कभी कभी होंसले डगमगा जाते थे,
बढ़ते कदम मानो खामोश हो जाते थे,
पर जब सन्नाटे को चीरती माँ की लोरी कानो तक आती थी,
उम्मीद वापस राह पकड़ लेती थी,
एक रौशनी दूर धुंधली सी दिखाई पड़ी है,
शायद मंजिल अब मिल जानी है,
क्योंकि उम्मीद अभी भी बाकी है